Quad Lamhe
By M Tasleem
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About this ebook
I was taken aback by her question. I started staring at her face and thinking about the answer to her question. I was unable to think of an answer. Even then, I took her hand in mine and told her, "I think I am alive to keep these hands in my hands forever. I wish to live to hear my name from your beautiful lips forever. I wish to live to hear your sweet melodious voice. I want to remain entrapped in your big magical eyes. I want to live with you forever…"
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Book preview
Quad Lamhe - M Tasleem
कैद लम्हे
एम तसलीम
Notion Press
Old No. 38, New No. 6
McNichols Road, Chetpet
Chennai - 600 031
First Published by Notion Press 2015
Copyright © M.Tasleem 2015
All Rights Reserved.
ISBN 978-93-5206-470-0
This book has been published in good faith that the work of the author is original. All efforts have been taken to make the material error-free. However, the author and the publisher disclaim the responsibility.
No part of this book may be used, reproduced in any manner whatsoever without written permission from the author, except in the case of brief quotations embodied in critical articles and reviews.
इस किताब के सारे पात्र कालपनिक हैं
इन पात्रौं का किसी मृत या जीवित व्यक्ति से
किसी प्रकार का सम्बंध मात्र संयोग ही होगा।
यह किताब सर्मपित है मेरे माता पिता को
और
मेरी पत्नी नूरजहान को
जो अपने ख्याल और जीने के ढंग में
मेरी मां की फोटोकापी है।
दो शब्द
मैं बंगलौर, अपनी बेटी के घर कुछ दिनों के लिए रहने आया था।
उन दिनों वो इंदिरानगर में पार्क के सामने रहती थी। पार्क मे बाऊंडरी से लगा अन्दर की तरफ मारनिंग वाक के लिए पक्का रास्ता बना था। सुबह शाम को ढेरों लोग दौड़ते या टहलते रहते थे। इनमें हर उम्र के लोग होते थे। घर के ठीक सामने पार्क का गेट था और शिव मंदिर भी था। मंदिर में अक्सर पूजा पाठ होता रहता था।
पार्क के अन्दर लगे बेंच पर बच्चे या जवान अक्सर दिखते थे। पार्क के आने वालों में बूढे़ लोग अक्सर पुजा के लिए आते थे। उन्में एक बूढा़ आदमी ब्रेड का पैकेट लेकर आता था। उसके चारों तरफ आवारा कुत्ते जमा हो जाते थे, जिन्हें वो ब्रेड अपने हाथों से खिलाता था।
उसी तरह अलग अलग लोग आते थे।एक लड़की आफिस के ड्रेस में एस्कूटी से आती थी। पार्क के गेट से आगे जाकर सिग्रेट पीती थी और चली जाती थी। ठीक इसी तरह एक लड़का अपने से बड़ी उम्र की औरत के साथ आकर बातें करता था। एक जवान जोड़ा जीन टी शर्ट में पार्क के बाऊंड़ी वाल पर बैठ कर एक दूसरे को पकड़ कर बात करता था। पार्क का माली हर एक दिन के बाद अपनी बीवी से झगड़ता था। इन्हीं सब पलों ने मुझे इस किताब को लिखने को प्रेरित किया।
डा सुभाष यादव जो सहरसा कालेज के हिन्दी विभाग के हेड थे उन्होंने इसे ठीक से लिखने में मदद किया। उन के बिना यह मुश्किल था।
मैं उन लम्हों और डा सुभाष यादव का बेहद आभारी हूं।
मुझे यह किताब लिखने में बहुत मजा आया। उम्मीद है पढ़ने वालों को पसन्द आएगा।
(एम तसलीम)
कोल इंडिया से रिटाएर्ड माइनिंग इंजिनयर जो एलएलबी भी है। बिहार के एक छोटे से शहर सुपौल का रहने वाला है।
छोटे से शहर के उस बच्चे को, जिंदगी के सफर ने जो कुछ सिखाया, उस सफर में सीखे अनुभवों ने प्रेरित किया कि जिन्दगी के अनुभवों को लिखे।
यह किताब ऐसी ही एक कोशिस है। इसे लिखने में जितना मजा मुझे आया, उम्मीद है आपको उतना ही मजा इसे पढ़ने में भी आएगा।
कैद लम्हे
मेरे हाथ में गहरे हरे रंग की इंक वाली सफेद मेटल के कवर वाला पेन है । मैं इस से जुड़ी यादों के रथ पर सवार हो कर अचानक साल 1972 में पहुंच गया हूं। बनारस शहर । जहां मैं बीएचयू के खनन विभाग में फर्स्ट क्लास माइन मैनेजर की परीक्षा देने गया था ।
शाम का समय है। मैं बनारस में गंगा के घाट पर ईरा के साथ बैठा हूं। दाईं तरफ के ऊपर से दूसरी सीढ़ी के एक किनारे पर । चारों ओर अजीब सा उदासी का माहौल है । दूर कोइ शव जलाया जा रहा है । इक्के दुक्के लोग जहां तहां सीढ़ियों पर बैठे हैं। जैसे जैसे शाम उतरती जा रही है लोगों की तादाद बढ़ती जा रही है। लोग आकर सीढ़ियों पर हर तरफ बैठते जा रहे हैं । सामने गंगा शांत गति से बह रही है । चारों ओर के इस हलचल के बीच एक अजीब सी उदासी और शांति का माहौल पसरा है । मैं चारो ओर फैली नीरवता को महसूस कर रहा हूं जो अपने विषदंत मेरे अन्दर प्रवेश करती जा रही है । मैं इस नीरवता में तल्लीन होता जा रहा हूं कि अचानक ईरा की आवाज से मेरी तंद्रा टूट जाती है । मैं माहौल में फैली नीरवता के नागपाश से मुक्त हो जाता हूं।
हम जीते क्यों हैं?
ईरा पूछती है ।
मैं उसके इस सवाल पर चौंक जाता हूं। एक पल के लिए उसे एकटक देखने लगता हूं। सोचता हूं आखिर यह क्या सवाल हुआ। इसका क्या जवाब दूं। इसी उधेड़बुन में मैं उसके हाथ को अपने हाथ में लेकर बोलता हूं मेरे ख्याल से मैं तुम्हारे इन मखमली हाथों को अपने हाथों में जीवन भर थामे रहने के लिए जी रहा हूं । तुम्हारी इन नरम होटों से अपना नाम हमेशा हमेशा सुनने के लिए जी रहा हूं । तुम्हारी मीठी सुरीली आवाज को सुनने के लिए जी रहा हूं । तुम्हारी इन बड़ी बड़ी कौतूहल भरी आखों के जादू में कैद रहने के लिए जी रहा हूं । तुम्हारी इन काली जुल्फों की छॉंव में जीने की आस के लिए जी रहा हूं । तुम्हारे पास हमेशा हमेशा रहने के लिए जी रहा हूं ।
ईरा हंसने लगती है तुम्हारी बात बनाने की आदत गई नहीं है।
ईरा मेरी दोस्त है । हम एक दूसरे को स्कूल के दिनों से जानते हैं । ईरा यहां बीएचयू में मेडिकल के फाइनल इयर में है । हम कभी कभी ही एक दूसरे से मिल पाते हैं क्योंकि हम अलग अलग शहर में रहते हैं। शहर क्या राज्य में पढ़ते हैं। हम एक दूसर को खत भी भूले भटके ही लिखते हैं पर जब कभी मिलते हैं एक दूसरे से ऐसी बक्वास की बातें करते हैं। सार्थक या निरर्थक जो भी कह लीजिए। पर ऐसी बक्वास की बातें करने की हमारी पुरानी आदत है ।
एक बार मैं ने उससे ऐसे ही पूछ लिया अच्छा ईमानदारी से बताओ तुम्हारे ख्याल से प्रेम क्या है?
ईरा छूटते ही बोली सुविधा।
वो कैसे?
मैं ने पूछा।
वो हंसते हुए बोली कवि महाराज ये कहानी फिर सही अभी चाय की तलब का समाधान किया जाए।
जैसी इच्छा साहिबा की।
कहकर हम चल पड़े ।
ईरा अक्सर ऐसे बकवास के मौके पर मुझे कवि जी या कवि महाराज से सम्बोधित करती है और मैं उसे साहिबा या देवी जी कहकर सम्बोधित करता हूं । ऐसा कभी कभी ही होता है वैसे हम एक दूसरे को उसके नाम से ही पुकारते हैं । हमारा एक दूसरे से इस प्रकार का बकवास चलता ही रहता है।
तभी अचानक पूरा घाट रौशनी से जगमगा उठा । लगा मानो किसी ने जादू कर दिया हो । एब्राकाडाब्रा। गंगा के कलकल बहते पानी में घाट का रंगबिरंगा अक्स अलौकिक लगने लगा था । चारों तरफ हलचल सी होने लगी थी मानो कोइ नींद से जाग गया हो । पूरा वातावरण जीवंत हो उठा था। घंटियों और मंत्रौचारण से वतावरण भक्तिमय हो गया था। हम कुछ देर तक इस आलौकिक माहौल में खोए रहे। फिर अनायास ही मैं ईरा के हाथ को पकड़े हुए बोल पड़ा और हम जीते हैं इस अलौकिक पल को सदा के लिए अपनी यादों में सहेजने के लिए।
बहुत बढ़िया कवि जी अब चलिए कल आपका पेपर है।
ईरा बोली।
और हम बातें करते हुए बीएचयू के लिए चल पड़े । रास्ते में एक फाउन्टेन पेन की दुकान दिखाइ दी । मैं ने इम्तहान के लिए यही पेन खरीदा जो अभी मेरे हाथ में है ।
तो अभी भी तुम इम्तहान के लिए नया पेन खरीदते हो और इम्तहान के बाद इसे कभी यूज नहीं करते हो।
ईरा ने पूछा।
हां।
मैं ने कहा।
और ऐसा कब तक चलेगा?
प्रार्थना करो। हो सकता है ये आखरी हो।
मैं ने कहा
अच्छा तो फिर वादा करो तुम ये पेन मुझे दे दोगे।
ईरा बोली।
जरूर। ये कलम मैं तुम्हें दे कर ही जाउंगा।
मैं ने कहा।
और हम ने यह पेन खरीदा जो इस समय मेरे हाथ में है। ईरा ने ही इसे पसन्द किया था। और हम गप शप करते बीएचयू की ओर चल दिए । फिर वो अपने हास्टल चली गइ और मैं अपने होटल ।
दूसरे दिन जब मैं इम्तहान हाल से बाहर निकला ईरा घबराई हूइ परेशान सी खड़ी थी। मुझे देखते ही बोली घर से तार आया है मम्मी बीमार है जल्द आने को कहा है। मैं निकल रही हूं। देखो अब कब किस्मत में मिलना लिखा है।
घबराओ मत। ऊपर वाला सब ठीक करेगा।
मैं ने ढाढस बढ़ाते हुए कहा।
और वो चली गइ । वो दिन है और आज का दिन। हम न तो एक दूसरे को देख पाए हैं और न ही